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लेकर विन्ध्य रहेंगे अपना
जागो विन्ध्य निवासी जागो,
बढकर के हुंकार करो,
है अपने अधिकार निता अब,
मिलकर के संघर्ष करो,
विन्ध्य मेरा प्रदेश अलग था,
रीवा तब रजधानी थी,
अस्तित्व मिटाने वालों की,
सोची रणनीति कहानी थी,
वह काला दिन है याद मुझे,
जब उसने विलय कराया था,
जो सत्ता की है ताकत पर,
इस विन्ध्य का मान घटाया था,
आवाज उठाने वालों पर,
उस वक्त ना कोई न्याय किया,
गद्दी पर जो बैठा था वह,
क्रूर बड़ा अन्याय किया,
यह आज दुर्दशा ना होती,
यदि मेरा विन्ध्य अलग होता,
आज देश के नक्शे में यह,
विन्ध्य प्रदेश चमन होता,
यहाँ नदियां बाँध सरोवर हैं,
प्रकृती भी अनुरूप सदा है,
वन पर्वत की भरमार यहाँ पर,
कोयला खनिज सम्पदा है,
विन्ध्य निवासी अपने दम पर,
अपनी पहचान बना लेंगे,
हर तरह से हम सब सक्षम है,
जी नहीं किसी से कुछ लेंगे,
बस मेरी सीमा रेखा जो थी,
उसको फिर लौटा दे तूँ,
मेरा विन्ध्य अलग करके,
अपना अधिकार हटा ले तूँ,
आवाज उठी थी पहले भी,
वह छोटी सी चिन्गारी थी,
भभक रही थी अन्तर्मन में,
दुखी धरा यह सारी थी,
एकजुट होकर विन्ध्य खडा है ,
राजनीति से अब हटकर के,
कृषक क्षात्र व्यापारी नेता,
कलमकार भी सब डटकर के,
अब तो इसका निर्णय होगा,
सत्ताधारी जो भी होगा,
आवाज सुनी ना जाएगी तो,
आर-पार अब सबकुछ होगा,
चिन्गारी ए जब ज्वाला बन,
बिकराल रूप में आएगी,
महगना रामलखन की कविता,
हास्य ना अब श्रृंगार बनेंगी,
राम लखन सिंह बाघेल महगना रीवा
अपना पुराना स्कूल देखता हूं
स्कूल देखता हूं, माटी की भित्ति, वो खप्पर के छज्जे,
शिक्षक, बड़ेछोटे खुशहाल बच्चे,
गाय के गोबर से,लिपटी वो धरती, बैठक व्यवस्था, वही टाट फट्टे, फिर भी मजे थे, स्कूल देखता हूं।
अपना पुराना, स्कूल देखता हूं।।
उठ के सुबह से, निकल जाते घर से,
वो बंधवा, वो नाला, सभी पार कर के
लडऩा झगडऩा और फिर मान जाना,
पढ़ते थे, बढ़ते थे,सब यार मिल के,
खो सा गया जो, स्कूल देखता हूं।
अपना पुराना, स्कूल देखता हूं।
घर से रुपइया के, कुछ सिक्के रख के, डिबिया में अमचूर को, बारबार चख के, बच्चों के मन में, बड़े प्रश्न आते, शिक्षक बड़े ध्यान से, जब पढ़ाते,
घंटी के बजते ही,सब भाग जाते,
पेड़ वो कचनार के, वो फूल देखता हूं।
अपना पुराना, स्कूल देखता हूं।।
चारों तरफ़ सुंदर, फूलों की क्यारी,
पीपल पर बैठी, वो चिडिय़ा थी प्यारी,
बारिश बरसती, वो बदरी सी काली,
बंदर उछलते थे, आमों की डाली,
सब कुछ बदल सा गया, देखता हूं।
अपना पुराना, स्कूल देखता हूं।।
वर्षों पढ़े जिसमें, दादा व पापा,
पढ़े और बेटी, वो बेटा व काका,
दिखाई दिशा जिसने, पीढ़ी दर पीढ़ी,
खड़ी कर दी जिसने, सफ़लता की सीढ़ी,
प्यारे से गांव की,पहचान देखता हूं।
अपना पुराना, स्कूल देखता हूं।।
हरिशरण तिवारी (सतना, म. प्र.)
समाजसेवक
देख एक समाज सेवक,
सिर मेरा चकरा गया।
आज फिर एक भक्षक,
रक्षक के भेष में आ गया।
हत्या, लूट ,अपहरण
है जिनके पेशे।
गली गली में चलते,
देशी दारू के ठेके।
शहर में गुंडागर्दी का,
जो करता नंगा नाच।
हफ्ता, अवैध वसूली का
जिम्मा जिसके पास।
सट्टेबाजी के धंधे में,
जिसकी है पहचान।
पल भर में ले लेता है,
ज़ो निर्दोषों की जान।
वह भी करेगा अब,
समाज सेवा का काम।
और बनेगा नेता,
एक दिन बड़ा महान।
दीपक कुमार गुप्ता
बाणसागर
दर-दर भटका हूं रोजी की तलाश में
पिताजी का त्याग मां का प्यार याद आता है।
लिए आस जिंदगी की शिक्षा से ही मेरी शान।
गुरुओं के द्वारा बोला शब्द याद आता है।
बचपन का था सुरूर जिंदगी का क्या कसूर ।
पूरे अंक लिए भी मैं मात खा जाता हूं।
आज का युवा हुआ अंक का शिकार जो।
डिग्री के आगे सारे ज्ञान भूल जाता है।
पड़े -पड़े देखे थे खटोले में जो सपने।
मेरे साथ वाला जब चांद पर जाता है।
सुख का पराठा बासी रोटियां के आगे जब।
रोजी का निवाला मुझसे दूर चला जाता है।
मिलेंगे ना पृथ्वी में एसे कोई संत दो।
बीता हुआ बचपन जमाना याद आता है।
दर-दर भटक हूं रोजी की तलाश में।
पिताजी का त्याग मां का प्यार याद आता है।
आकाश त्रिपाठी आशु
कृष्ण गढ़ रामपुर बघेलान सतना
कर्ण कुंडल कवच , जिसकी जन्मजात धरोहर थी।
क्षत्रिय कुल में जन्मा फिर भी, रूठी उसकी किस्मत थी।।
ना मां का प्यार मिला ,ना पिता कि अनुपम छाया।
मिला गुरु से ज्ञान मगर, रणभूमि में कुछ ना कर पाया।।
केशव की महिमा के आगे, कर्ण नतमस्तक होता है।
काल समय जब घेरे तो, मित्र भी शत्रु होता है ।।
देवराज इंद्र भी कर्ण जैसे, दानी के सम्मुख भिक्षुक थे।
कर्ण वीर महान बलवान धनुर्धर ,शौर्य ऐसा कि इंद्र भी नतमस्तक थे।।
ऐसा नहीं की कार्ण , धर्मात्मा नहीं था।
ऐसा नहीं कि कर्ण ,अपनी मृत्यु जानता नहीं था ।।
कर्ण ने धर्म को छोड़कर, मित्रता को अपनाया था।
अपने ही भाई के हाथों ,हंसते-हंसते तीरो को खाया था।।
जाति धर्म से कर्म बड़ा , यह संघर्ष करते-करते मर गया।
कुरुक्षेत्र की भूमि से, महारथी कर्ण जैसा योद्धा चला गया।
अभय कुमार चौरसिया, महसांव (रीवा
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रुकना नहीं, थमना नहीं
रुकना नहीं, थमना नहीं श्रम से तू, डरना नहीं
तू वीर है बलवीर है माता-पिता का शीश है
तू गिर गया, तो क्या हुआ? लडख़ड़ाए कदम तो क्या हुआ? फिर भी तुझे है, रुकना नहीं
है कान पर औरों की तू सुनना नहीं
हौसलों को मु_ी में तू बांध ले
लक्ष्य पाना है तुझे, यह ठान ले जो हो गया सो हो गया जान ले गुजरा हुआ पल अब लौटकर ना आएगा
जोड़ अपने पंखों को
फिर आसमा में हौसलों की तू एक नई उड़ान ले ?
रुकना नहीं, थकना नहीं
श्रम से तू डरना नहीं ।
शशी तिवारी अमवा रीवा।
ईश अपनाना होगा
कलयुग मे अन्याय न्याय का लेश न होगा ।
पाखंड करेगा राज उचित परिवेश न होगा ।।
दुशासन करता रोज गली मे चीर हरण है ।
द्रोपदी के जीवन से लगता नेक मरण है ।।
अति का अंत जरूरी फिर केशव अवतरित होंगे।
अन्यायी अत्याचारी भी नष्ट त्वरित होंगे।।
जीवन है अनमोल बात समझाना होगा।
सुनलो प्रीति पुकार ईश अपनाना होगा।।
कुत्ते पाले जाते हैं, गौ माता दर दर भटक रहीं ।
जन्म मिला जिस माता से वो माता घर घर बिलख रही।।
पाल पोष कर जिस माता ने सबको इतना बड़ा किया।
आज उसी माता को सबने चौराहे पर खड़ा किया।।
पाप करे जो उससे बढ़ कर देखने बाला दोषी है।
दूध पिया जिसने है माँ का वह क्योंकर मदहोशी है ।।
जो भूले निज फर्जों को उनको होश मे लाना होगा।
सुनलो प्रीति पुकार ईश अपनाना होगा।।
सरल नही नही जीवन जितना समझ रहे हो।
सच्चाई को छोड़ झूठ से उलझ रहे हो।।
जीवन सार्थक करो सत्य पथ जाना होगा।
सुन लो प्रीति पुकार ईश अपनाना होगा।
प्रीति शर्मा परी
नई गढ़ी रीवा।
कुछ खाली-खाली सा लगता है मां,
एक अहम कोना मेरे जीवन का,
अब सूना सूना सा लगता है मां।।
वो घर,आंगन और तेरा प्यार आंचल,
सब कुछ रुठा-रुठा सा लगता है मां।
इस परदेश में मुझको मेरा जीवन,
उलझा-उलझा सा लगता है मां।।
मेरा घर, तो मेरा ही घर था ना,
पर देख इन जिम्मेदारियों ने कैसे,
अपने ही घर का मेहमान बनाया है मां,
ना चाहते हुए भी इस जीवन ने,
तुझसे दूर मोड़ दिखाया है मां।।
मैं जानता हूं तूने भी तो,
अपने दिल पर पत्थर रखा है मां,
खुश रहना ऐसा कहकर रोया है मां।
तू चाहती है,कुछ बनाकर आऊं
इस जग में अपनी पहचान बनाऊं,
पर अब तुझसे दूर होकर मां,
यहां सुकून के दो पल तक ना पाऊं,
तू बता अब कैसे अपनी पहचान बनाऊं,
जब खुद को मैं,खुद में ही ना पाऊं,
तुझसे दूर कैसे रह पाऊं।।
तन्मय द्विवेदी
सिरमौर, रीवा
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चार अनंत
अँधेरी स्याह रात में
कोठरी में बैठा
अपना विस्तार नाप रहा था ।
खुली आँखों से ,अपना शरीर तातोल रहा था
बंद आँखों से, अनगिनत नक्षत्र तारे पृथ्वी और आकाश देख रहा था7
खुली आंखों से , खुद को अकेला पा रहा था
बंद आंखों से ,पूरी सृष्टि साथ पा रहा था
अंधेरी स्याह रात में
कोठरी में बैठा अपना विस्तार नाप रहा था
अँधेरा मुझे देख मुस्कुरा रहा था
देखो मानि को
कै से अपनी कल्पना जिा राहा है
कोठारी के एक कोने में दबुका बैठा
अनंत में अपना विस्तार देख रहा है
अँधेरी स्याह रात में
कोठरी में बैठा अपना विस्तार नाप रहा था
मैंभी अँधरेे की बातें सुन मुस्कुरा रहा था
देखो अनंत तक इस अँधेरे को
कैसे रोशनी से छुपा जा रहा है
तब अंधेरी कोठारी में
हां प्रकाश आया
अँधेरा दरूले कोने में जा पहुंचा
अब उस कोठरी में तीन अनंत विधमान था
डॉ एनपी तिवारी
सतना
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आधुनिक नारी
नारी के नारित्व की अब बदली पहचान।
शालीनता की वो बेमिसाल मूरत,
था गले तक घूघट भोली सी सूरत,
कर्तव्य पंथ में सिमटी – सकुची,
पूरी करती थी सबकी जरूरत।
वो कर्म वीर अब प्रवल वेग से,
देशोन्नति दे रही योगदान।
नारी के नारित्व की अब बदली पहचान।
अबला नहीं अब सबल हो गई है,
हर क्षेत्र में सफल हो गई है,
अंतर्द्वंद से विजयी पथ पर,
पौरुष भर के प्रवल हो गई है,
चार दिवारी से फाइटर जेट तक,
अवनी ने भर दी है ऊँची उडान।
नारी के नारित्व की अब बदली पहचान।
द्वापर में थी जो असहाय बेचारी,
कायरों की सभा में माधव पुकारी,
जिसे धर्मराज ने दांव बनाया,
वस्तु समझ कर भाव लगाया,
वही द्रोपदी अब उच्चासन पर,
है देश का गौरव सर्वोच्च स्थान।
नारी के नारित्व की अब बदली पहचान।
धरती से अंबर पहुँच गई नारी,
हर चुनौती पर पुरुषों पे भारी,
सहगामी बन हर रंग में ढली
कल्पना सुनीता अंतरिक्ष में चली
बिन सज्जा ही सुंदर लगने को ठान
किया है अपने हुनर का उत्थान।
नारी के नारित्व की अब बदली पहचान
उसे पूजा नहीं अधिकार दीजिए
सर उठा कर चले वो संस्कार दीजिए
सुंदरता की देवी न समझे उसे
समाज को गढ़े वो आधार दीजिए
आत्म बल को ढाल बनाकर
शक्ति स्वरूपा को दें सम्मान
नारी के नारित्व की अब बदली पहचान
प्रवीणा पाण्डेय रीवा म.प्र.