सीधी.भारतीय विंध्य बसुंधरा की इस रम्य एवं सिद्धभूमि सिद्धि (सीधी) का इतिहास सदा से महान परम्पराओं के लिए रहा है। आदिकाल से लेकर आज तक सभ्यता की लड़ी यहां कभी खंडित नहीं होने पाई। यहां की पावन भूमि हमारी अनेक धार्मिक मान्यताओं तथा सांस्कृतिक उत्थानों को अपने में संनिहित किये हुए हैं। बौद्धाडांड, सेमरा, तुर्रा और चन्द्रेह के शिवमंदिर व उनकी भित्ति प्रतिमाएं तथा माड़ा की गुफाओं व मडफ़ेडांड मंदिर के प्राणवान शिल्प हमारी प्राचीनतम सभ्यता के प्रकाश स्तंभ हैं। सिद्धभूमि सीधी का अतीत हमारे देश का सांस्कृतिक वैभव है।
अत: इस पर हमे गर्व होना चाहिए। सभ्यता के विकास के क्षेत्र में विंध्यावटी के इस भू-भाग की देन गौरवपूर्ण रही है। यहां के विभिन्न अंचलों में सती पट्टी प्रतिमाओं का प्राप्त होना यह प्रमाणित करते हैं कि यहां के कण-कण अपने में त्याग और बलिदान का इतिहास छिपाए हुए हैं। यहां के पहाड़, खाइंया व विषम भूमि में सीधी जनपद को जो राजनीतिक सुरक्षा के अवसर दिये उसमें प्राचीनकाल से यहां पर सभ्यता की श्रृंखला बराबर चलती रही है। सीधी जनपद का प्राचीन इतिहास पूरा पाषाणकाल के मानवों से प्राप्त होता है। उनकी बस्तियों के निशान सीधी जनपद में सोन व उसकी सहायक बनास एवं महान नदियों के घाटी क्षेत्रों में विशेषकर हिनौती, बीछी, बघोर, भंवरसेन, सिहावल, नकझर, सिंगरौली, बर्दी, चंदरेह, खैरा, नुलहास तथा पटपरा आदि में मिलते हैं।
इन स्थलों के लघु पाषाणिक उद्योग के चिन्ह भी इतिहासकारों को खोज के दौरान मिले हैं जो इस बात के स्पष्ट प्रमाण प्रस्तुत करते हैं कि यहां पर पाषाणकाल में भी अर्थात ई.सा पूर्व द्वितीय सहास्त्रावदी के लगभग मानव आवाद थे। नव पाषाण युगीन अवशेष झुनझुन तथा लहानिहा में देखने को मिलते हैं। ऐतिहासिक काल में इसका उल्लेख रामायण तथा महाभारत की कथाओं में मिलता है कि इसकी स्थापना कैसी हुई तथा इसका नाम कारूष कैसे पड़ा। इसका आधुनिक नाम सीधी संभवत: सिध्धी शब्द का विकृत रूप है। ऐसा अनुमान किया जाता है कि धीरे-धीरे नाम बदला। रामायण तथा महाभारत काल के पश्चात सीधी जनपद के भाग्य पर अंधकार घिर आया और जब तक हम मौर्य काल के प्रकाश में नहीं आ जाते तब तक यह जनपद विस्मृत के गर्त में ही डूबा रहा। मौर्य काल में मध्यप्रदेश का यह भू-भाग भी उसके साम्राज्य के अंतर्गत आता था। मौर्य काल में चन्द्रास पर्वत, बौद्धडांड, नगवागढ़, कठौली तथा मड़वास धार्मिक महत्व का स्थान होने के कारण यहां देश के विभिन्न भागों में हिन्दू तथा बौद्धतीर्थ यात्री आया करते थे क्योंकि ये सभी महत्वपूर्ण स्थल व्यापारिक मार्ग पर स्थित थे।
मौर्य काल में कैमूर पहाडिय़ों की ओर से भी एक व्यापारिक मार्ग रूपनाथ होता हुआ इलाहाबाद को भडौच से जोडऩे वाला अवश्य ही रहा होगा। इस क्षेत्र में बौद्ध मत का प्रचार भी अशोक के राज्यकाल से प्रारंभ होता है। मौर्यों के बाद शुंगों के समय में उनका साम्राज्य विस्तार दक्षिण में नर्मदा नदी के क्षेत्रों तक पश्चिम में विदिशा तक और उत्तर-पश्चिम में उनका विस्तार सिंधू नदी तक था। यदि यह तथ्य सही है तो तर्क के आधार पर हम कह सकते हैं कि सीधी जिला उनके साम्राज्य का एक अभिन्न अंग रहा होगा। दूसरी सदी ई. के मध्य से लेकर चौथी सदी ई. के प्रारंभ तक सीधी जिले का कुछ हिस्सा संभवत: मद्यवंश के अधिपत्य में रहा है। लेखों, मुद्राओं और सिक्कों से स्पष्ट होता है कि इस घराने के लोग बाधवगढ़ जिला शहडोल से संबंधित थे।
सीधी जिला बघेलों के अधिकार में कुछ हद तक 16वीं एवं कुछ हद तक 18वीं शताब्दी में आया। बघेल अपने आपको गुजरात के चालुक्य अथवा सोलंकियों की संतान मानते हैं। ऐसा कहा जाता है कि कर्णदेव बाघेला ने अपना गुजरात का राज्य अलाउद्दीन खिलजी के भीषण आक्रमण से 1290 ई. अथवा उसके दूसरे आक्रमण 1304 ई. में खोया। कणदेव के उत्तराधिकारी कालिंजर आए और भर प्रमुख के अधीन सेवा स्वीकार की। बाद में बाघेलों ने बादा के गहोरा को अपने अधिकार में लिया और तब से 14वीं शताब्दी के पूर्वाद्व में अपनी शक्ति का विस्तार करते हुए एक विशाल क्षेत्र पर फैल गये जो मिर्जापुर जिले के कांतिल और प्रभार तक विस्तृत था। तब बघेलों में 14वीं शताब्दी के उत्तरार्थ में बघेलखंड की संप्रभुता प्राप्त की।