रीवा। देश को आजादी मिलने के बाद राजतंत्रीय व्यवस्था समाप्त हुई और लोकतंत्रीय व्यवस्था लागू हुई। शाही तंत्र के आदी रहे राजवशों को यह बात नागवार तो गुजर रही थी लेकिन उन्हें स्वीकार करना ही पड़ा। पहले तो वह नई राज व्यवस्था से दूर रहे परंतु कुछ समय बाद अपने अस्तित्व के लिए लोकतंत्र की चौखट पर आए। विंध्य की बात करें तो रीवा राजघराने के साथ अधीनस्थ राजघरानों के तत्कालीन शासकों ने शाही तंत्र छिनने के बाद लोकशाही को न केवल स्वीकार किया अपितु पांव भी जमाए। अब तक विंध्य के तीन राजघरानों के 9 वंशज राजनीति में अपनी पैठ जमा चुके हैं। इनमें रीवा राजघराने के साथ ही चुरहट व नागौद राज घराना प्रमुख है। जिनमें से तीन स्वर्ग सिधार चुके हैं। पांच अभी जनता की दरबार में हैं और अपनी सियासी जमीन मजबूत करने में जुटे हुए हैं।
nn
nn
nतब राजा की इच्छा होती थी आदेश
nराजतंत्रीय शासन प्रणाली पुरातन है। इसके गवाह पौराणिक ग्रंथ व इतिहास की पुस्तकें हैं। पहले तो राजतंत्र प्रमुख यानी उस राज का राजा न्याय व धर्म की प्रतिमूर्ति माना जाता था। प्रजापालनउसका मुख्य राजधर्म होता था। यही कारण है कि उस समय की प्रजा, अब जनता, उन्हें देवता के समान मानती थी। कालांतर में बदलाव हुआ और राजतंत्र के मायने बदले। राजतंत्र की जगह शाहीतंत्र आ गया। 15 वीं शताब्दी के पूर्व तक अखंड भारत के राजा महाराजाओं द्वारा राजधर्म का पालन किया जाता रहा लेकिन मुगलों के आक्रमण के बाद शाही तंत्र ज्यादा हावी हुआ। राजतंत्र व राजधर्म के मायने बदल गए। राजवंशीय शासक भोग विलास के आदी हुए। कहते हैं पहले राजा स्वयं भूखा भले रहे पर प्रजा को भूखा नहीं रखता था। किंतु शाही प्रवृत्ति के कारण राजधर्म से प्रजापालन का अध्याय विलोपित होने लगा और प्रजा अधिकार वस्तु हो गई। इसका असर हर देश के सभी रजवाड़ों पड़ा। शाही परंपरा से विंध्य भी अछूता नहीं रहा। हालांकि रीवा राजघराने के प्रति यहां की आवाम का स्नेह कभी कम नहीं था। कहते हैं कि यहां राजा महाराजा प्रजा को बचाने के लिए युद्ध कम संधि ज्यादा किया करते थे। आजादी के लगभग ढाई दशक तक रीवा राजघराना लोकतंत्रीय परंपरा से दूर रहा लेकिन अंतत: अस्तित्व बरकरार रखने के लिए शामिल होना पड़ा।
nn
nn
nn
आजादी के 24 साल बाद रीवा राजघराने ने राजनीति में पदार्पण किया। तत्कालीन रीवा राज्य के अंतिम महाराजा मार्तण्ड सिंह लगभग ढाई दशक तक लोकतंत्रीय व्यवस्था से दूर रहे। वर्ष 1771 में वह लोकतंत्र के हिस्सा बने और सांसद के रूप में पार्लियामेंट पहुंचे थे। इसके बाद एक बार स्वतंत्र व एक बार कांग्रेस से संसद पहुंचे। उनके बेटे पुष्पराज सिंह 1990 में रीवा विधानसभा से विधायक चुने गए और प्रदेश की राजनीति में सक्रिय हुए। तीसरी पीढ़ी में युवराज दिव्यराज सिंह 2013 में सिरमौर विधानसभा से चुने गए। पुष्पराज सिंह कांग्रेस से तीन बार विधायक बने इसके बाद उन्होंने कांग्रेस छोड़कर सपा का भी दामन थामा और फिर कांग्रेस में शामिल हुए। अब इसी साल भाजपा में शामिल हो गए हैं। उनके पुत्र युवराज दिव्यराज सिंह भाजपा से दो बार से विधायक हैं। भाजपा ने 2023 के चुनाव में भी युवराज दिव्यराज सिंह को प्रत्याशी घोषित किया है।
nn
nn
nn
nनेहरू मंत्रिमंडल में ही शामिल हो गया था चुरहट राजघराना
nतत्कालीन रीवा राज्य के जागीरदार जिन्हें चुरहट राजघराना के रूप में भी जाना जाता है, आजादी से पहले ही कांग्रेस में शमिल हो गया था। इन्हें आभास था कि अब राजतंत्रीय व्यवस्था नहीं चलेगी इसलिए वह पहले ही ठिकाना बना लिए थे। जब देश में पहली बार लोकतंत्रीय सरकार बनी तब चुरहट राजघराने के राव शिवबहादुर सिंह नेहरू मंत्रिमंडल में शामिल किए गए थे। राव शिवबहादुर सिंह के बेटे कुंवर अर्जुन सिंह मध्यप्रदेश के पहले विधानसभा चुनाव में विधायक चुने गए थे। 19971 में उनके बड़े भाई राव रणबहादुर सिंह सीधी सांसद चुने गए थे। वर्तमान में अर्जुन सिंह के बेटे अजय सिंह राहुल पूर्व नेता प्रतिपक्ष व राव रणबहादुर सिंह के बेटे केके सिंह भंवर साहब सक्रिय राजनीति में हैं।
nn
nn
n1977 से ही सक्रिय है नागौद राजघराना
nसतना जिले में कई राजघराने हैं, लेकिन राजनीति में नागौद राजघराना ही सक्रिय हुआ। यह राजघराना 1977 से राजनीति में सक्रिय है। इस राजघराने के नागेंद्र सिंह विधायक चुने गए। कई बार प्रदेश में विधायक व मंत्री तो रहे ही 2014 में वह खजुराहो सांसद चुने गए थे। 2018 में फिर विधायक चुने गए। इनके अलावा राजघराने का अन्य कोई सक्रिय नहीं था। अब उनके भतीजे गगनेंद्र सिंह राजनीति में सक्रिय हैं।