न शोला न शबनम
n कहती आग की दरिया, शोला बनके आई है।
nमगर तासीर तेरी नम, तेरे रग रग में छाई है।
nछुअन वाले कहते हैं, तू शोला हो नहीं सकती।
nये ठंडक भरा जीवन, तू शबनम बनके आई है।
nतेरी मुस्कान भी देखा, तेरी देखी ठिठोली भी।
nमैं देखा आंख का गुस्सा, इशारा देखा अंगुली की।
nफडफ़ड़ाते हैं देखे होंठ, मैं देखा बाजू भी हिलते।
nमगर जीवन में तू मेरे, तुहिन कण बनके आई है।
nअमित कुमार द्विवेदी, रीवा
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nमन
nभीड़ में खोया इक प्राणी मात्र
nसुनता जीवन में वही है,
nजो सुनना चाहता है उसका मन !
nशून्य की तलाश में भटकता रहता,
nजबकि खाली हाथ आए, और जाना भी खाली ही हाथ है,
nइस राज से बेखबर है मानव मन!
nक्षण भंगुर सा वज़ूद जग में, किन्तु सामान इकठ्ठा करता, जहान भर का यहाँ मानव !
nआया नहीं कोई यहाँ सदा के लिए, फिर भी शंका मन में
nअमरत्व की रहती व्याप्त !
nजब जाना ही है अंतत:, इस जग को छोड़कर,
nफिर शत्रुता मन में क्यूँ रखता मन!
nशरीर तो है माटी का पुतला, माटी में ही मिल जाना है
nरहस्य यह ना समझा बंजारा मन!
nभ्रांति में रहा जीवन पर्यंत, जिंदगी तो मात्र स्वप्नलोक है,
nऔर सपने तो टूट जाते ही हैं !
nसबको खुश रखना मुश्किल है जहां में, हँसी हँसी में जिन्हें खो देते हैं, याद उन रिश्तों की आती है, अश्कों में बह बहकर ।
nमुनीष भाटिया, मोहाली
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nओ दादा
nचोर – चोर मउसेरे भाई, ओ दादा।
nसग भाई से हबै लड़ाई, ओ दादा।
nआँगे कुइंयाँ पीछे खाई, जीबन मा,
nठेंग-ठेंग के करी हिंठाई, ओ दादा।
nगांउ गोहार कखरी लडि़का, तब मिला,
nदिन बूड़त तक मची हेराई, ओ दादा।
nआँन के आसा परै उपासा, सब दिनहुँ,
nबात समझ मा अब है आई, ओ दादा।
nअई राम कि जई लब्याधा,फ्याँका तुम,
nफल के चिनता है दुखदाई, ओ दादा।
nबड़ी बड़ाई फटी रजाई, जानी थे,
nहै अपने मुँहे जग हँसाई, ओ दादा।
nआँखी फूट सोहान नहीं जे,आजौ तक,
nउनहिन काहीं सगा बताई, ओ दादा।
nबहुत दिना तक गोही चाट्या,तुम भइने,
nठाहर अबकी करा दबाई, ओ दादा।
nआगी खई त अँगरा हगी, सुना समर,
nहम काहे के दोख मनाई, ओ दादा।
nसमरजीत वर्मा, सतना
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nचुनाव
nरोजि-रोजि फार्म भरवाए,
nसमय परिक्षा में तरुआ खजुआवै,
nगद्दी में बैठि के खाइ मलाई,
nरोजि- रोजि कारड बनबावे।
nजॉब कार्ड काम शुरू भा, तब विकास के नाम शुरू भा,
nपांच साल त रगड के खाईन, लिस्ट पढिन सम्मान शुरू भा।
nरोज-रोज दिल्ली हैं भागत, घोषणा के बौछार लगाबत,
nपांच बरिश से काम शुरू हैं, उ घूमि रहे खबर छपबाबत।
nखबर फैलि गई चारिउ कइती, रोड बनी अब अमरीका जैसी,
nपुनिके भीड़ खूब उधरानि, चार जनेंन भा पुनि सम्मान।
nइया सरकार के नीति नयी है पिछे घुमा प्रीति नयी है,
nहर मालिक के इया हाल है अब राजनीति के रीति नयी है।।
n प्रीतम शुक्ला, सीधी
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nख्वाबों में
nमरुभूमि मे रंग दिखा दावानल सा इन आँखों में,
nतेरा एक झलक जो दिखा मुझको एक तरंग उठी मेरे उर में।
nतेरी मृगनयनी सी अँखिया, है प्यास जगाती मेरे तन में,
nतेरे लाल गाल सुराही सी गर्दन, है प्यार जगाती मेरे मन में।
nबलखाती है जब नागिन सी, हिय आ जाता है हाथों में,
nमन बरबस सा दौड़ा आता, जब तु इठलाती बागों मे।
n’अमितÓ कल्पना मे डूबा, तस्वीर बसा अपने दिल में,
nहै प्रेम जगत की रीत यहाँ, प्रेमिका बस जाती ख्वाबो में ।
n अमित चतुर्वेदी
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nश्याम
nबरसाना राधा गोरी ,श्याम और ग्वाल बाल
nधरती का स्वर्णकाल कृष्ण अवतार था
nमाधव से प्रेम करें नर नारी खग मृग
nप्रेम ही था मूलधन प्रेम ही उधार था
nलीलाकरें लीलाधारी साथ में श्री राधा प्यारी
nबरसानें में तो फिर रोज ही त्योहार था
nबाँसुरी की तान बस बोले राधे राधे राधे
nराधेश्याम प्रेम ही तो धरा में श्रृंगार था ।
nअभिषेक द्विवेदी