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आवाम की आवाज है कविता
nमहंगाई के इस दौर में हम हैं लाचार,
nकितना भी करें मेहनत, बस होता है विकार।
nदिनभर भटकते हैं हम, बढ़ती जा रही है चिंता,
nखर्चे बढ़ रहे हैं हमारे, कहाँ हैं संयम और अंतर्मन की मित्रता।
nमेहनती आम आदमी, रोजग़ार की तलाश में,
nकामधेनु की तरह बन गया है सिर्फ टैक्स भरने का जरिया।
nबाजार में महंगाई की मार लगती है चोट,
nखाली पेट, खाली झोला, यह है बेरोजगारी का दर्दनाक संघर्ष।
nसब्जी में नहीं चमकता प्याज का प्याला,
nदूध-दही, घी-मक्खन छोड़ सकते हैं अब तक़दीर की माला।
nसिर्फ धन का दर्पण दिखाता है समाज,
nकहीं काले धन के पारे, कहीं दूर खड़ी है गरीबी की भारी बजार।
nयह सियासत की जंग है, जिसमें शोहरत है मुखौटा,
nसमाज के मसीहा के ख्वाब बिक रहे हैं जुमले-झूठे वादे और बहुत सारा धोखा।
nमहंगाई के गहरे समुंदर में है फंसा हर व्यक्ति।
nसरलता, सच्चाई, इन्सानियत का खो गया है वह समय जिसमें था सभी का साथी।
nअभिषेक सिंह ‘सागरÓ, रिमारी बैकुण्ठपुर
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nलीक से हटकर काम करो
nबेटी अब तुम अंगार बनो, छूने वाले सब जल जाएं।
nकामुकता की प्यास लिए जो, प्यास लिए वो मर जाएं।
nचीरहरण की लिए कामना, दुशासन की दुस्साहस।
nमुरली वाला आएगा कब, अब उसकी न राह तको।
nशूल नहीं सहना है तुमको, उसकी छाती पर चढऩा है।
nबढ़ो निरंतर छुओ गगन को, देश को अपने गढऩा है।
nरुको नहीं तुम चलते जाओ, लीक से हटकर काम करो।
nपथअवरोध जो आए कुचलो, तुम नित नए प्रतिमान गढ़ो।
nअमित कुमार द्विवेदी, रीवा
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n माँ वसुंधरा
nजग जननी माँ वसुंधरा को,
n तन -मन- धन वार करूँ,
nऋषि मुनियों की तपस्थली है इसका आभार करूँ।
nसावन की रिम- झिम फुहार,
nअंतस भिगो रही है बौछार। धुला – धुला सा शबनमी बदन,
nज्यों कर रही हो सोलह श्रृंगार। इसकी अनुपम छटा निराली , दे रही है सबको दुलार।
nइसकी ममतामयी गोद में, वात्सल्य स्वीकार करूँ।
nपर्वत पठार और घाटी सरोवर, विविधता समेटे धरती मनोहर।
n सूखी पड़ी कहीं बर्फ की खान, कहीं नद- नदी ले रहे उफान।
nवैचित्र्य को समेटे हुए धरा, करे सबका पोषण और निदान।
nइस अनुपम सौंदर्य सृष्टि पे , सब कुछ बलिहार करूँ।
nहरे भरे हुए खेत और वन, फूलों से सुसज्जित धरती का तन।
nयह असीम नहि सीमा इसकी, छटा देख हुए तृप्त नयन।
nसुंदर सुहानी सुषमा पर, हिलोरें ले रहा चंचल मन।
nसर्वस्व न्योछावर करती हम पर, सब मिल सत्कार करूँ।
n प्रवीणा पाण्डेय, माध्यमिक शिक्षक
nझूठ कहूं या सच बोलूं मैं
nझूठ का नंगा खेल देखता, बैठा हूं मैं जल के तीरे,
nआंख मे आंसू भरकर के मैं, हंसता जाता धीरे धीरे।
nझूठ कहूं या सच बोलूं मैं, कसक भरी है मन मे मेरे।
nक्या सच, क्या शिव क्या है सुंदर, बिलख रहा सच उर के अंदर।
nझूठ को झूठ से मैं मारूं या, लुट जाऊं मैं हाथ लुटेरे।
nडूब गया क्या सूरज जग से, या सच को है बादल घेरे।
nरह रहकर है टीस निकलती, चुभ जाती है दिल को मेरे।
nक्या ईश्वर क्या देव धरम जब, नंगा नाचें चोर लुटेरे।
nझूठ का नंगा खेल देखता, बैठा हूं मै जल के तीरे।।
nडॉ रजनीश कुमार पाण्डेय ‘ओजस्वीÓ, रीवा
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nसंघर्ष के सफर में
nजमाने के साथ चलकर, मुकद्दर को बांह भरकर।
nचलता रहा हूं, अब तक, विश्वास मन में धरकर।
nआंधी चली अनेकों, तूफां भी खूब आए।
nपग पग में थी बाधाएं, पर रुका कभी न डरकर।
nथककर कभी अचानक, जब भी मैं डगमगाया।
nमां बाप का वो चेहरा, हमको था नजर आया।
nसंघर्ष के सफर में, टूटा था खूब फिर भी।
nबिखरा नहीं कभी था, हालात से मैं डरकर।
nतम से भरे सफर में, कहीं डर न जीत जाए।
nकायर मुझे किसी से, कहकर न मुस्कुराए।
nभयभीत भी हुआ हूं, फिर भी रहा में चलता।
nविचलित नहीं हुआ हूं, मझधार में भी फंसकर।
nचलता रहा हूं, अब तक, विश्वास मन में धरकर।
nललित पांडे, ‘विंध्य पुत्रÓ, रीवा
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nएक एहसास
nमैं एक एहसास में हूं, जिसे जबान बता नही सकती।
nकोई अजीब जिज्ञासा है, जिसे बुद्धि सुलझा नहीं सकती।
nकुछ खाली सा है, और कुछ भरने को बेताब है।
nकुछ और भी है, जो बस लगता लाजवाब है।
nकुछ बुलाता सा है, मगर आवाज़ नही आती।
nकोई खयाल है या सच है, बात समझ नही आती।
nमैं एक एहसास में हूं, जिसे जबान बता नही सकती।
nकोई अजीब जिज्ञासा है, जिसे बुद्धि सुलझा नहीं सकती।
nज्ञानेंद्र सिंह, रीवा
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nबारहमासा
nपहिल महीना चैत से गिना, राम जनम का जौने मा दिना ।।
nदूसर मास आबा वैशाख, वैसाखी पंचनद की साख।।
nजेठ मास का जाना तिसरा, अब ता जाड़ा सबका बिसरा।।
nचौथ मास मा आबा अषाढ़, नदियन मा आबत ही बाढ़।।
nपंचमें मा सावन घेरै बदरी, झूला झूला गाबा कजरी।।
nभदई मास का जाना छठा, लल्ला जन्म के पावन छटा।।
nमास सतमां मा लगा कुमार, दुर्गापूजन के आई बयार।।
nकातिक मास अठमां आबा, देबारी म नीकै दिआ जलाबा।।
nनौमा महीना आबा अगहन, सिया बनी राम की दुलहिन।।
nपूस महीना है क्रम मा दस, पिआ सब मिलके गन्ना रस।।
nगेरहमा मास माघ का गाबा, समरसता के भाव जगाबा।।
nमास बरहमा फागुन आबा, होली के रंग संग लैय आबा ।।
nबारा महीना पूर भा गौतम, करजोड़ के नमन है हरदम ।।
n हीरेन्द्र गौतम, ढेकहा
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nगांव की छांव
nसिसकती अभाव में धूमिल सी जिंदगी मेरे गांव की
nबारिस के पानी ज्यो तैरती कहानी कागजी नाव की
nवन पर्वत हरियाली कलकल ध्वनि झरनों की न्यारी
nलहराती अमराई मंडराती भौरी टोली लगती प्यारी
nपर्व त्योहार हैं समता का व्यवहार है किस्से ठहराव की
nसिसकती अभाव में धूमिल सी जिंदगी मेरे गांव की
nतोता गौरैया साथ फुदकती बुलबुल दिख जाते हैं यहां वहां
nतीतर बटेर करते अहेर बाजों से छिपते फिरती जहां तहां
nमुर्गे की बांग कोयल की तान और कौओं के कांव कांव की
nसिसकती अभाव में धूमिल सी जिंदगी मेरे गांव की
nअनपढ़ किसान शिक्षा विहीन निज कार्यों में प्रवीण
nफ़टे हाल बच्चे बेहाल फूटे घर उनके जीर्ण शीर्ण
nनंगे पग पथरीले पथ कहते कहानी शासन के दुराव की
nसिसकती अभाव में धूमिल सी जिन्दगी मेरे गांव की
nपीडि़त प्रसव की वेदना से त्यागती जीवन सफर
nजाने कितनी ही गयी होगी यहां कब कहां किसको खबर
nचोट सीने में दबाए फिर भी मुस्कराए दुखती बेवाई पांव की
nसिसकती अभाव में धूमिल सी जिंदगी मेरे गांव की
nतपती गर्मी चूती छानी सर्दी की ठिठुरन बेमानी
nभूखे हैं पेट सूखे पड़े खेत कर्जे में गिरवी किसानी
nबेटी का ब्याह उठता कराह नहीं इलाज इस घाव की
nसिसकती अभाव में धूमिल सी जिंदगी मेरे गांव की।
nटीके सिंह परिहार, बासी सतना