रीवा। हॉकी खिलाड़ी मेजर ध्यानचंद्र का नाम सुनते ही देश वासियों का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। इस माहन खिलाड़ी का जन्म दिन है। जिसे इस देश में राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाया जाएगा। जब भी प्रदेश स्तर पर हॉकी की बात होती है तो रीवा को कहीं न कहीं याद किया जाता रहा है। लेकिन वर्तमान में रीवा की हॉकी को लेकर शर्मिंदगी महशूश होती है। पिछले वर्ष इस खेल को बढ़ावा देने के लिए खेल दिवस के दिन ही कसमे खाई गई थी लेकिन अफसोस आज भी हम वहीं के वहीं खड़े है। वर्ष 2014 में रीवा जिले के टीआरएस कालेज में हॉकी स्टो टर्फ की सौगात दी गई। बड़ी मसक्कत के बाद इसका निर्माण कार्य शुरू किया गया। परिस्थति कुछ ऐसे थी निर्माण कार्य में अनेक बधाएं आई, मैदान का आधा निर्माण हुआ ही था कि मैदान को प्रशानिक आयोजन के लिए दे दिया गया। मैदान पूरी तरह से नष्ट हो गया। दोबारा मसक्कत की गई। निर्माण दोबारा शुरू हुआ। अब कार्यक्रम मुख्यमंत्री का था। जिस पर मैदान की खोज इसी स्टो टर्फ पर पूरी की गई। आयोजन हुआ इसके बाद महाविद्यालय के प्राध्यापक की बेटी के विवाह के लिए भी दद्दा की भावनाओं व हॉकी खिलाडिय़ों की उम्मीद को ठेस पहुंचाई गई। समय था कि मैदान पूरी तरह से नष्ट हो गया। कुछ समाजसेवियों ने आवाज तो उठाई मामला न्यायालय में भी गया। लेकिन दद्दा की याद में बनाए गए इस स्टेडियम को नहीं बचा सके। आज आलम यह है कि हाकी के लिए बनाया गया मेजर ध्यानचंद्र आज अपना अस्तित्व खो चुका है। यह सौगात खिलाडिय़ों का इंतजार बनकर रह गई और एक भी खेल आयोजन नहीं हो सके। मैदान भी पूरी तरह से नष्ट हो चुका है। सुविधाएं नहीं मिलने से खिलाड़ी अब इस खेल से किनारा करने लगे हैं। नए खिलाड़ी भी इस खेल में आना नहीं चाहते। हॉकी के प्रति अधिकारियों व जनप्रतिनिधियों का उदासीन रवैया इस खेल को घटा रहा है। मैदानों की कमी व खिलाडिय़ों का आभाव स्थिति को बद् से बद्तर कर रहा है।
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नहीं हुए कोई प्रयास….
पिछले वर्ष खेल प्रतिनिधियों व खेल संघों से बात चीत पर उन्होंने इस खेल को बढ़ावा देने कस्मे जरूर खाई थी। लेकिन कोई प्रयास नहीं किए गए। पूरे एक वर्ष में एक भी हॉकी के आयोजन नहीं कराएं गए। यहां तक कि आज भी खेल संघों की खेल दिवस के प्रति कोई सक्रियता नहीं मालूम पड़ रही है। यहां तक की रीवा के 16 सक्रिय क्लबों में एक क्लब को भी जिंदा करने का प्रयास नहीं किया गया। जो हॉकी खेल व दद्दा के गौरव को पूरी तरह से जमीदोज कर रही है।
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कागज में रहता है नाम
स्कूल शिक्षा विभाग से लेकर विवि स्तर तक हॉकी के खेल आयोजन के लिए वार्षिक कलेंडर में हॉकी का नाम तो दिया जाता है लेकिन इस खेल का आयोजन कराया नहीं जाता। कागज पर खिलाडिय़ों के नाम भेज दिए जाते है। जो जिले के बाहर हार कर वापस आ जाते है। स्कूल शिक्षा विभाग में सतना जिले ने जरूर हॉकी के गौरव को बचाया है।
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ऐसे थे हमारे दद्दा….
मेजर ध्यानचंद का जन्म 29 अगस्त 1905 को इलाहाबाद में हुआ था। उन्होंने चौदह वर्ष की उम्र में पहली बार हॉकी स्टिक थामी थी और सोलह वर्ष की उम्र में आर्मी की पंजाब रेजीमेंट में सिपाही के रूप में भर्ती हुए। यहां पर उन्होंने आर्मी की हॉकी टीम के अच्छे प्रशिक्षकों के मार्गदर्शन में अपने हुनर को निखारा। 1926 में उनका चयन भारतीय हॉकी टीम में हुआ। वर्ष 1928 के एम्सटर्डम ओलिम्पिक में भारतीय हॉकी टीम ने पहली बार ओलिम्पिक खेलों में भाग लिया और अपने सभी मैच जीतकर विश्वभर में हॉकी की चैम्पियन बन गई। वर्ष 1932 में लॉस एंजिल्स ओलिम्पिक में भी वेे भारतीय टीम में शामिल हुए और उन्होंने भारतीय टीम की खिताबी जीत की राह प्रशस्त की। वर्ष 1936 के बर्लिन ओलिम्पिक में भारतीय हॉकी टीम के कप्तान बनाये गये। यहां भी उनके खेल का जादू सबके सिर चढ़कर बोला।
ओलिम्पिक खेलों में उन्होंने 101 गोल किए और अंतर्राष्ट्रीय मैचों में 400 से अधिक गोल का कीर्तिमान बनाया। 42 वर्ष की आयु तक हॉकी खेलने के बाद उन्होंने वर्ष 1948 में हॉकी से संन्यास ग्रहण किया। कैंसर जैसी भयानक बीमारी को झेलते हुये वर्ष 1979 में मेजर ध्यानचंद का देहांत हो गया।
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वर्जन
हाकी खेल किसी जमाने में रीवा की पहचान हुआ करता था, क्रिकेट की तरह हर खिलाड़ी में हॉकी खेलने का जूनून था। रीवा मं 16 क्लब भी हुआ करते थे। स्कूल स्तर पर जितना प्रयास इस खेल को बढ़ावा देने के लिए किए जा सकते है करते है। हॉकी टर्फ स्टेडियम व संसाधनों का आभाव बड़ी वजह है।
ओपी द्विवेदी, जिला क्रीड़ा अधिकारी स्कूल शिक्षा विभाग।
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