सीधी. चुनाव आते ही नेताओं को जाति और समाज दिखने लगता है। इसका असर चुनाव के प्रचार के दौरान भी खुले तौर पर नजर आता है। ऐसा आभाष होता है कि चुनाव के दौरान वोट की राजनीति तक ही समाजवाद सीमित होकर रह गया है। वोट पडऩे तक जाति और समाज के नाम पर लोगों को बांटने के लिए गोपनीय तौर पर अभियान चलाया जाता है। इसके मोहरे कुछ प्रत्याशियों के समर्थक और कार्यकर्ता ही रहते हैं। उनके द्वारा प्रत्याशी के जाति और समाज के लोगों को पक्ष में लाने के लिए जातिगत राजनीति की जाती है। यह प्रयास किया जाता है कि संबंधित जाति के लोग अपने जाति के प्रत्याशी को जीत दिलाने में खुलेतौर पर सामने आएं। इसी वजह से चुनाव प्रचार के दौरान सभी क्षेत्रों में आम लोग भी जातिगत आधार पर बंटे हुए नजर आते हैं। उनके लिए चुनाव में यही अहम हो जाता है कि उनकी जाति और समाज के प्रत्याशी की जीत हर हाल में होनी चाहिए। हालांकि चुनाव जीतने के बाद नेता हर समाज के खास बन जाते हैं और अपने ही जाति और समाज का कोई काम नहीं करते। ऐसा आभाष होता है कि जो समर्थक एवं कार्यकर्ता जाति और समाज के नाम पर लोगों को चुनाव के दौरान बांटने का काम कर रहे थे वह खुद ही अपने नेता से उपेक्षित हो चुके हैं। जानकारों का कहना है कि कुछ सालों से चुनाव के दौरान जाति और समाज के नाम पर लोगों को बांटने का काम बड़े पैमाने पर किया जा रहा है। कुछ प्रत्याशी चुनाव के दौरान अपने समर्थकों के माध्यम से जातिगत पत्ते खूब खेलते हैं। हालंाकि कई बार उनका यह खेल उल्टा पड़ जाता है और उन्हें मुंह की खानी पड़ती है। फिर भी चुनाव आते ही जाति और समाज का खेल शुरू हो जाता है। जानकारों का मानना है कि यह सबकुछ चुनाव जीतने के लिए सुनियोजित तरीके से किया जाता है। जिससे आम जनता को बांटकर अपना उल्लू सीधा किया जाए। जीत मिलने के बाद नेताओं के चेहरे बदल जाते हैं। वह केवल अपने स्वार्थ को ही प्राथमिकता देने लगते हैं। यह दीगर बात है कि काफी संख्या में ऐसे भी मतदाता होते हैं जिनके द्वारा चुनाव में जाति के आधार पर वोट नहीं दिया जाता। ऐसे मतदाता काम के आधार पर ही वोट देते हैं। लेकिन नेता चुनाव के दौरान जीत पाने के लिए सभी तरह के हथकंडे अपनाने में पीछे नहीं रहते। चुनाव खत्म होने के बाद भी इसी वजह से लंबे समय तक लोगों के बीच दूरियां बनी रहती हैं और समाजवाद को भी काफी ठेस पहुंचती है। चुनाव में जीत पाने के लिए इस तरह के दांव चलने का सिलसिला कुछ दिनों बाद ही शुरू होने वाला है और लोग उसी के आधार पर बंटते हुए अपने हितों को प्रथमिकता न देते हुए बहकाव में वोट कर सकते हैं जो कि किसी भी वर्ग के लोगों के हित में नहीं होगा।
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nचुनाव में जिस तरह से जाति और समाज का कार्ड खेलने को प्राथमिकता दी जाती है उस तरह का कार्य ऐसे नेताओं में करने का जज्बा नहीं होता है। ऐसे नेता अपने समाज के हितों के लिए कभी भी आगे आकर सार्वजनिक तौर पर कोई कार्य नहीं करते। जिससे समाज के जरूरतमंद लोगों का भला हो जाए। यदि अपने जाति और समाज के लोगों की इतनी ही चिंता ऐसे नेताओं को होती तो इनके द्वारा अवश्य ही प्रभावी पहल की जाती। देखा जाता है कि चुनाव के समय जाति और समाज की सीढ़ी लगाकर चुनाव मैदान में फतह पाने का प्रयास किया जाता है। लेकिन बाद में ऐसे अवसरवादी नेता जीत मिलने के बाद अपने जाति और समाज को भी उपेक्षित करनें में पीछे नहीं रहते हैं। जातिगत आधार पर वोट करने वाले लोगों को भी अपनी गलती का एहसास बाद में होता है तब उनके सामने पश्चाताप करने के अलावा कोई रास्ता नहीं रहता। जाति और समाज की बात करने वाले नेताओं को सबसे पहले अपने समाज के उत्थान के लिए सार्वजनिक तौर पर पहल करने की जरूरत है।
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nजातिगत राजनीति से किसी का कोई भला नहीं हो सकता। जानकार भी मानते हैं कि जातिगत राजनीति करने वाले नेताओं की पहचान केवल अवसरवादिता की होती है। काम निकलने के बाद ऐसे नेता अपने जाति और समाज का कोई भला नहीं करते हैं। चुनाव के दौरान लोगों को भी सावधान रहने की जरूरत है। उन्हें अपना अनमोल मत ऐसे प्रत्याशी को देना चाहिए जिससे पूरे क्षेत्र का विकास हो सके। चुनाव में अपने व्यक्तिगत हितों एवं कार्यों को कभी भी प्राथमिकता नहीं देनी चाहिए। चुनाव के दौरान बड़े-बड़े वायदे करने वाले नेताओं के बैकग्राउंड भी पूरी जांच-पड़ताल करनी चाहिए। जिससे स्पष्ट हो सके कि जीत मिलने के बाद वह क्षेत्र का विकास कर सकते हैं। प्राय: देखा जाता है कि चुनाव के दौरान बड़े-बड़े वायदे करने वाले नेता पांच साल तक क्षेत्र से गायब रहते हैं। यदि कभी आम जनता को इनकी आवश्यकता होती है तो यह अपने चाटुकारों से घिरे हुए मिलते हैं। उनसे जन सामान्य व्यक्ति आसानी से मिल भी नहीं सकता।