रीवा। संविधान में लोकतंत्र का व्यापक महत्व बताया गया है। जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा चुना गया तंत्र लोकतंत्र है। लेकिन सच्चाई इससे परे है। राजतंत्र की तरह लोकतंत्र में भी वंशवाद की बेल लहलहा रही है। कुछ राजनैतिक घराने हैं, जिनके वारिस ही क्षेत्र विशेष के दावेदार होते हैं। इसके एक दो नहीं,कई उदाहरण भी हैंं। रीवा संभाग के संदर्भ में बात करें तो लगभग आधा दर्जन राजनीतिक घराने हैं जहां से राजनीति का उत्तराधिकार के तहत संचालन होता आ रहा है। मजे की बात यह है कि जनता भी स्वीकार कर रही है। हालांकि अन्य दल भाजपा व बसपा तीन दशक से ही अस्तित्व में आए हैं। इसलिए स्थानीय स्तर पर कम है लेकिन सबसे पुराने दल कांग्रेस में वंशबेल की जडें़ काफी गहरी हैं। आजादी के अमृत काल में तीसरी पीढ़ी की दखल चल रही है। हालात वहीं हैं। आम आदमी को जिस तरह राजतंत्र में जी हुजूरी करना पड़ता था, आज भी उसी तरह करना पड़ रहा है। चूंकि वंशबेल की जड़ें काफी गहराई तक हैं इसलिए खास के आगे आम की नहीं चल पाती। इससे साफ कहा जा सकता है कि लोकतंत्र भी राजतंत्र की परछाई में है। संभाग अंतर्गत रीवा जिले में तिवारी घराना अमहिया, राजघराना, सीधी के चुरहट में राजघराना, पूर्व मुख्यमंत्री गोविंद नारायण सिंह, इंद्रजीत पटेल , सतना में गुलशेर अहमद का नाम सामने आया है।
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nविंध्य के दो स्थापित नेताओं की तीसरी पीढ़ी को कमान : विंध्य की राजनीति में स्व. श्रीनिवास तिवारी अमहिया व कुंवर अर्जुन सिंह चुरहट कद्दावर नेता हुए। श्रीनिवास ने तो स्वयं राजनैतिक जमीन तैयार की और उत्तराधिकारी के रूप में अपने बेटे व पोते को सौंपा। कुंवर अर्जुन सिंह को राजनैतिक विरासत उनके पिता से मिली थी। उनके पिता राव शिवबहादुर सिंह तत्कालीन पंडित जवाहर लाल नेहरू सरकार में मंत्री थे। कहा तो यह जाता है कि अुर्जन सिंह ने अपना राजनैतिक सफर स्वतंत्र रूप से शुरू किया था। जब वह विधायक बन गए तब उन्हें नेहरू ने अपनी पार्टी में शामिल कराया था। अर्जुन सिंह प्रदेश के कई बार मुख्यमंत्री रहने के साथ ही केंद्रीय मंत्री भी रहे। उनकी राजनैतिक जमीन चुरहट विधानसभा रही। जब तक लड़े, वह चुरहट से ही लड़े और जीते। उसके बाद उनके पुत्र अजय सिंह राहुल ने कमान संभाली। वह कई बार विधायक चुने गए। मप्र सरकार में मंत्री बने व दो बार नेता प्रतिपक्ष के भी चुने गए। हालांकि 2018 के चुनाव में अपनी परंपरागत सीट से हार का स्वाद भी चखना पड़ा। रीवा में स्व. श्रीनिवास तिवारी ने अपना राजनैतिक कैरियर सोशलिस्ट से शुरू किया और बाद में कांग्रेस में शमिल हो गए। उन्होंने अपने स्वर्णिम राजनैतिक काल में ही अपने छोटे बेटे स्व. सुंदर लाल तिवारी को लोकसभा का टिकट दिलाया और वह चुनाव जीत कर नेता बन गए थे। पिछले चुनाव में अपने नाती स्व. विवेक तिवारी बबला को भी कांग्रेस से विधानसभा का टिकट दिला कर राजनैतिक पृष्ठिभूमि तैयार करने का काम किया। 2018 में विवेक तिवारी की पत्नी अरुणा तिवारी को पार्टी ने आगे बढ़ाया। सुंदरलाल तिवारी के अवसान के बाद संवेदनात्मक वोट कैश करने के लिए कांग्रेस ने उनके पुत्र सिद्धार्थ तिवारी राज को लोकसभा में उतारा, हालंाकि वह चुनाव हार गए। वैसे तो रीवा राजघराने की तीसरी पीढ़ी भी राजनैतिक सीढ़ी चढ़ चुकी है लेकिन यहां कहानी में ट्विस्ट है। महाराजा मार्तण्ड सिंह जू देव कांग्रेस सांसद तो बने लेकिन अपने पुत्र पुष्पराज सिंह को आगे करने का प्रयास नहीं किया। राजनैतिक दल कांग्रेस ने राजघराना होने के कारण पुष्पराज सिंह को 1990 में विधानसभा में उतारा। उनके पुत्र दिव्यराज सिंह ने पहले तो पिता की राह पर चलते हुए कांग्रेस की सदस्यता ली लेकिन कुछ ही दिन बाद पाला बदला और भाजपा में शामिल होकर विधानसभा तक पहुंच गए।
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संभाग में कई ऐसे नेता हुए जिन्होंने अपनी सियासी जमीन का वारिसाना कर दिया। इनमें पूर्व मुख्यमंत्री गोविंद नारायण सिंह सतना ने अपने पुत्रों हर्ष नारायण सिंह व धु्रव नारायण सिंह को राजनैतिक विरासत सौंपी। अब उनके नाती विक्रम सिंह रामपुर बघेलान से भाजपा विधायक हैं। वहीं गुलशेर अहमद सतना ने अपने पुत्र सईद अहमद को विरासत सौंपी, इसी प्रकार इंद्रजीत पटेल सीधी ने अपने पुत्र कमलेश्वर पटेल को नेता बनाया। पूर्व विधायक स्व.रामलखन पटेल ने अपने पुत्र रमाशंकर सिंह को और स्व. रमाकांत तिवारी अपने पुत्र कौशलेश तिवारी को आगे किया। हालंाकि अभी दोनों चुनाव जीतने में सफल नहीं हो पाए हैं।
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nये नेता रहे पीछे : ऐसे कई नेता थे जो सियासत में गहरी पैठ रखते थे लेकिन वे अपने वारिसों को आगे नहीं कर पाए। इनमें विंध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शंभू प्रसाद शुक्ला, समाजवादी नेता यमुना प्रसाद शास्त्री, जगदीशचंद्र जोशी, आरआरपी सिंह, राजभानु सिंह तिवारी, चंपा देवी, मुनि प्रसाद शुक्ला, प्रेमलाल मिश्रा, राजमणि पटेल जैसे स्थापित नेता अपने वारिसों को राजनैतिक विरासत नहीं सौंप पाए। राजमणि पटेल 2023 के चुनाव में अपने बड़े बेटे को विधानसभा चुनाव की कमान दिलाना चाह जरूर रहे हैं लेकिन सफल होते नजर नहीं आ रहे हैं। यही कारण है कि आज इनके वारिस सियासत में गुमनाम नजर आ रहे हैं।